ब्रह्माजी द्वारा शिवतत्व का वर्णन | शिव पुराण | श्रीरुद्र संहिता- अध्याय 6

ब्रह्माजी द्वारा शिवतत्व का वर्णन | शिव पुराण | श्रीरुद्र संहिता- अध्याय 6

शिव पुराण हिंदू धर्म में अठारह पुराणों में सबसे अधिक पढ़ा जाने वाला पुराण है। यह सनातन भगवान शिव और उनकी पत्नी देवी पार्वती के चारों ओर केंद्रित है। भगवान शिव सनातन धर्म में सबसे अधिक पूजे जाने वाले भगवानों में से एक हैं।

शिव महापुराण में सात 'संहिताएं' शामिल हैं जो भगवान शिव के जीवन के विभिन्न पहलुओं का एक ज्वलंत विवरण प्रदान करती हैं।

शिवमहापुराण की दूसरी संहिता रुद्र संहिता है। रुद्र संहिता के पांच खंड हैं। प्रथम खंड में बीस अध्याय हैं। दूसरे खंड को सती खंड कहा गया है, जिसमें 43 अध्याय हैं। तीसरा खंड पार्वती खंड है, जिसमें 55 अध्याय हैं। चौथा खंड कुमार खंड के नाम से जाना जाता है, जिसमें 20 अध्याय हैं। इस संहिता का पांचवां खंड युद्ध खंड के नाम से जाना जाता है, जिसमें कुल 59 अध्याय हैं। इसी संहिता में 'सृष्टि खण्ड' के अन्तर्गत जगत का आदि कारण शिव को माना गया है। शिव से ही आद्या शक्ति 'माया' का आविर्भाव होता है, फिर शिव से ही 'ब्रह्मा' और 'विष्णु' की उत्पत्ति बताई गई है। इस पुराण में 24,000 श्लोक हैं तथा इसके क्रमशः 6 खंड हैं।


[00:00:00] श्री रुद्र संहिता प्रथम खंड चठा अधयय ब्रहमजी द्वारा शिवतत्व का वर्णन प्रहमजी ने कहा,

[00:00:10] तुम सदा ही जगत के उपकार में लगे रहते हो, तुमने जगत के लोगों के हित के लिए बहुत उत्तम बात पूछी है, जिसके सुनने से मनुष्य के सब जन्मों के पापों का नाश हो जाता है, उस परंब्रहम शिवतत्व का वर्णन मैं तुम्हारे लिए कर रहा हूं।

[00:00:39] और चंद्रमा दिखाई देने बंध हो गये थे, सभी ग्रहों और नक्षत्रों का कहीं पता नहीं चल रहा था, दिन रात अगनी जल कुछ भी नहीं था, प्रधान आकाश और अन्य तेज भी शून्य हो गये थे, शब्द, स्पर्ष, गंध, रूप, रसका भाव हो गया था

[00:00:57] सत्या सत्य सब कुछ खत्म हो गया था, तब सिर्फ सत्यी बचा था, उस तत्व को मुनिजन एवं योगी अपने हृदय के भीतर ही देखते हैं, वाणी, नाम, रूप, रंग आदी की वहां तक पहुँच नहीं है

[00:01:10] उस परंब्रहम के विशय में ज्यान और अज्यान से किये गए संबोधन के द्वारा, कुछ समय बाद अर्थात स्रिष्टी का समय आने पर एक से अनेक होने के संकल्प का उदय हुआ, तब उन्होंने अपनी लीला से मूर्ती की रचना की, वह मूर्ती संपूर्ण एश्वर

[00:01:37] मूर्ती को ईश्वर कहते हैं, उसने अपने शरीर से स्वच्छ शरीर वाली एवं स्वरूपता शक्ती की रचना की, वहीं पराशक्ती, प्रकृती, गुणमई और बुद्धिमती की जननी कहलाती है, उसे शक्ती, अंबिका, प्रकृती, संपूर्ण लोकों की जनननी, त्र

[00:02:07] एवं गहनों से देवी की शोभा बढ़ती है, वे अनेक प्रकार के अस्त्र शस्त्र धारन किये हुए हैं, सदय वग्य के ही सब मुख्य परमपुरुष, ईश्वर, शिव शंभू और महिश्वर कहकर पुकारते हैं, उनके मस्तक पर गंगा, भाल में, चंद्रमा और मुख म

[00:02:37] यह परम पावन स्थान काशी नाम से जाना जाता है, यह परम मोक्षदाइनी स्थान है, इस क्षेत्र में परम आनंद रूप शिव पारवती सहित निवास करते हैं, शिव और शिवा ने प्रतिकल्प में भी उस स्थान को नहीं छोड़ा, इसलिए शिव जी ने इसका नाम �

[00:03:04] किसी दूसरे व्यक्ति को सौप कर हम यहीं काशी में विराजमान रहेंगे, ऐसा सोच कर उन्होंने अपने वामभाग के दस्वें अंश पर अम्रित मस्तक दिया, जिससे एक सुन्दर पुरुष वहां प्रकट हुआ, जो शान्त और सत्व गुणों से युक्त एवं गंभी

[00:03:38] प्रकट होने से तुम्हारा नाम विश्णु होगा, तुम भक्तों को सुख देने वाले होगे, तुम यहीं स्थिर रहकर तप करो, वही सभी कारियों का साधन है। ऐसा कहकर शिवजी ने उन्हें ज्यान प्रदान किया, तथा वहां से अंतरधान हो गए। तब विश्णु

[00:04:04] उसे सारा सूना आकाश व्यास हो गया, वह ब्रह्म रूप जल अपने स्पर्शमात्र से पापों का नाश करने वाला था, उस जल में भगवान विश्णु ने स्वयम शयन किया, नार अर्था जल में निवास करने के कारण ही वे नारायन कहाए। तब ही से उन महात्मा से सब

[00:04:20] तत्वों की उत्पत्ती हुई, पहले प्रकृती से महान और उससे तीन गुण उत्पन्न हुए तथा उनसे अहंकार उत्पन्न हुआ, उससे शब्द, स्पर्ष, रूप, रस और गंध, एवं पांच भूत प्रकट हुए, उनसे ज्ञानेंद्रियां एवं करमेंद्रियां �

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